झारखण्ड के स्थानीय लोगों के स्वरोजगार के लिए लाह की खेती को कृषि का दर्जा देने की सांसद ने की मांग
भारत देश का सबसे बड़ा लाख उत्पादक राज्य झारखंड है और इसके बढ़ने की भी पूरी संभावना है। भारत द्वारा उत्पादित लाख विश्व के 50 से अधिक देशो में निर्यात किया जाता है और वहाँ सामग्रियों का निर्माण कर महंगे दामों में भारत को बेचा जाता है। लाख का उपयोग कॉस्मेटिक इंडस्ट्री, इलेक्ट्रिक इंडस्ट्री, मशीनरी, डिफेंस, फूड इंडस्ट्री इत्यादि सभी जगहों पर उपयोग किया जाता है। पलाश और अन्य लाख पोषक वृक्षों के संरक्षण-सम्वर्धन और प्रबंधन की व्यवस्था किसानों को देने की जरूरत है। जिसके माध्यम से लाखों ग्रामीण स्वरोजगार प्राप्त कर बेरोजगारी, पलायन और भुखमरी से निजात पा सकते हैं और राज्य के ग्रामो में लघु एवं कुटीर उद्योग की स्थापना सरलता से की जा सकती है। इस कार्य मे 90 प्रतिशत महिलाओं की सहभागिता होती है।
गौरतलब है कि वन विभाग, झारखंड के अधीन कुल 12 लाह फार्म हैं जो विभाग के निष्क्रियता के कारण राज्य को अरबो का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। उन 12 लाह फार्म में से एकमात्र पलामू के कुन्दरी लाह बगान को ग्रामीणों की जागरूकता और निःस्वार्थ भावना के कारण उत्पादन शुरू कराया जा सका है, जो एक बार फिर बर्बादी की कगार पर खड़ा है। यह वन विभाग के खर्च और उत्पादन की तुलना करने से ही स्पष्ट हो जाएगा।
हाल ही में इस मुद्दे को उठाते हुए चतरा सांसद सुनील कुमार सिंह ने लोक सभा में नियम 377 के तहत झारखंड झारखण्ड में पलाश पर लाह की खेती को वन उत्पादन की श्रेणी से कृषि कार्य के रूप में किये जाने मांग की।
सिंह ने लोक सभा में बताया कि झारखंड के प्राकृतिक संसाधनों में एक पलाश सभी जिलों और प्रखंडों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। पलाश पर लाह की खेती अन्नदाता की कृषि प्रणाली के समानन्तर है लेकिन झारखण्ड में लाह की खेती को इसके बावजूद वन उत्पादन की श्रेणी में रखा गया है।
सुनील कुमार सिंह ने सरकार से मांग की है कि लाह के विकास और झारखण्ड के स्थानीय लोगों को स्वरोजगार के लिए लाह की खेती को कृषि का दर्जा दिया जायें। साथ ही लाह पोषक वृक्षों के संरक्षण-सम्वर्धन एवं प्रबन्धन का अधिकार स्थानीय ग्रामीणों को दिया जाए।