अधूरी ख्वाहिशों का सफर
यूँ तो हर दिवस हर व्यक्ति के लिये विशेष होता है, मगर वर्ष में कोई एक दिन किसी खास के लिये मनाया जाए तो सारी चर्चा उसी पर केद्रित हो जाती हैं। इसी तरह मार्च महीने में हर तरफ महिलाओं की चर्चा शुरू हो जाती है। 8 मार्च को महिला दिवस पर हर बड़े छोटे मंच का इस्तेमाल महिलाओं के अधिकार और उनके साथ हो रहे ज्यादतियों पर बहस एवं मंथन के लिये किया जाता है। कई तो महिलाओं से जुड़े मुद्दों को सदाबहार मानते हैं, क्योकि हर कोई महिला के समर्थन में दो शब्द कहकर खद को मजबूत स्थिति में देखने लगता है।
ऐसे में गौर करने वाली बात यह भी है कि चर्चा का विशेष बिंदु बनकर महिलाओं को उनकी खुशी मिलती है..? एक महिला होते हुए न ही इससे मझेखशी मिलती है। और न ही मेरे जानने वाली दसरी महिलाओं कोआखिर महिला को खुशी कब मिलती है या उसे खुश रहना नहीं आता। बेशक आता है, जब वह आम रहती है, परूषों की तरह ही खद को जीती है। कदम-कदम पर अपनी ख्वाहिशें नहीं मारती है, और मरते वक्त अपनी अधूरी इच्छाओं के लिये आहें नहीं भरती है।
इस बात का ज़िक्र यहाँ इसीलिये कर रही कि शहरी आधुनिक महिलाओं(कामकाजी) से इतर ग्रामीण एवं घरेलू महिलाएँ अपने दिल में कई ख्वाहिशें घर किये दुनियाँ से विदा हो जाती है, और उनकी करीबी भी इस कसक को महसूस तक नहीं कर पाते। ऐसा उन शहरी महिलाओं के साथ भी है, जो पति व बच्चों की देखभाल में बूढ़ी हो जाती है। उन्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करने की खुशी तो होती है, मगर अधूरेपन के अहसास में वह भी घुलती हैं। राजमणि सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
लगभग 55-56 वर्षीय इस महिला से मैं उनकी छोटी सी रेडिमेड दुकान पर मिली थी, जिसे उनकी बहू चलाती है। वह भी वहीं पास में ही बैठी मिल जाती हैं। शायद ग्राहक न हों तो दोनों बातें कर आसानी से वक्त भी बिता लेती हैं। दरअसल दुकान उनके घर के निचले हिस्से में ही है। एक दिन मैं उस दुकान से कुछ लेने गई तो बरबस ही राजमणि सिंह ने मुझसे पूछ लिया- क्या आप एनजीओ में हैं, मैंने कहा नहीं जर्नलिस्ट हूँ। यह सुनकर उन्होंने कहा- कोई एनजीओ पहचान का हो तो कहना, मैं जुड़ना चाहती हूँ।
मैंने हंसकर पूछा-क्या करेंगी आप एनजीओं में..? राजमणि सिंह ने कहा कुछ भी कर सकती हूँ, जरूरतमंद को डॉक्टर तक पहुँचाने से लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने जैसे सारे काम। ग्रेजुएट हूँ। संभ्रांत परिवार से हैं। पिता के घर थी. जब उन्होंने यह कहकर कछ करने नहीं दिया कि लोग क्या कहेंगे। शादी के बाद पति एवं तीन बच्चों की जिम्मेदारियों में जैसे कभी वक्त मिला ही नहीं। पति एमटीएनएल में अधिकारी पद पर थे। जब भी उनसे कछ करने की ख्वाहिश के बारे में कहती, उनका जवाब होता तुमसे यह सब नहीं होगा।
गीता, रामायण, कुरान सब पढ़ चुकी हूँ। पति इस दुनियां नहीं हैं. सदमें में 2 साल तक बिस्तर पर भी रही. मगर अब जिन्दगी बची है, तो मरने से पहले कुछ करना चाहती हूँ। मैं एकटक उन्हें देखते हुए सुन रही थी। पहली नजर में वह मुझे बहुत साधारण महिला लगी थी। जानने के बाद एक गहरी, समझदार और उर्जा से भरी एक सामाजिक दायित्व से परिपूर्ण महिला मेरे सामने थी।
तब मुझे अपनी माँ का भी ख्याल आया, जब वह बार-बार कहती रहती थी कि वह भी प्रोफ़ेसर होती अगर घर और पति का साथ मिलता। यह बात वह अंत तक कहती रही। घर की जिम्मेदारियों को पूरा करने में कब अधिकतर महिलाओं की छोटी सी ख्वाहिश दम तोड़ देती है, अपनों को कहाँ पता चलता है।
त्याग, बलिदान की प्रतिमूर्ति कही जाने वाली इन महिलाओं को कौन और कब तक याद रखता है। जिन्दगी के बाद तो उसकी याद भी धूमिल हो जाती है। ऐसे में अधूरी ख्वाहिशों के साथ जीने वाली महिलाओं के लिये महिला दिवस के मायने तो तभी हैं, जब उन्हें खास नहीं आम रखा जाए। उनकी भावनाओं, इच्छाओं को भी उतना ही सम्मान मिले जितना कि पुरूषों को मिलता है। बस इतने में महिला दिवस के मायने बदल जाते हैं।