शिक्षक बनें समाज के शिल्पकार


शिक्षक का तात्पर्य उस शख्स से है जो अपने ज्ञान के प्रकाश से विद्यार्थी की अज्ञानता को दूर कर देता है। अशिष्ट को शिष्ट, असफल को सफल, और गुमराह को सही रास्ता दिखलाने में ही शिक्षक का अर्थ समाहित है। इसलिये शिक्षकों का सम्मान सर्वथा ही किया जाता है। विश्व के विभिन्न देशों में शिक्षकों के सम्मान में अलग-अलग तिथियों में शिक्षक दिवस का आयोजन किया जाता है।  इसी संदर्भ में विश्व शिक्षक दिवस 5 अक्टूबर को मनाया जाता है।


भारत में भी हर वर्ष 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। 5 सितम्बर, देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन है जिसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डा. राधाकृष्णन एक महान शिक्षाविद, एवं दार्शनिक थे। उन्होंने अपने जीवन के 40 वर्ष शिक्षक के रूप में व्यतीत किये। अपने शिष्यों के साथ उनके संबंध काफी मैत्रीपूर्ण रहे। वह गुरू और शिष्य के बीच किसी संकोच की जगह नहीं रखते थे। यही कारण था कि शिष्य उनसे बहुत स्नेह रखते एवं उनका सम्मान करते थे।


डॉ. राधाकृष्णन विभिन्न पदों पर रहते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना खास योगदान देते रहे। उनके अनुसार यदि शिक्षा सही प्रकार से दी जाए तो समाज से अनेक बुराईयों को मिटाया जा सकता है। वर्तमान परिपेक्ष्य में देखा जाए तो डॉ. राधाकृष्णन की यह दूरदर्शिता एवं उनकी गूढ़ बातों का महत्व समझने की बेहद जरूरत है। आज अज्ञानता और भटकाव के चलते ही विश्व के लोग तमाम तरह की बुराईयों से जूझ रहे हैं।


आजादी एवं हक प्राप्ति के लिये आतंक का दामन पकड़ने वालों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे उन्होने अपने जीवन में शिक्षक का बहुत अभाव देखा है। यही कारण है कि मनुष्य कहीं जाति तो कहीं धर्म के नाम पर एक-दूसरे का दुश्मन नजर आने लगा है। ऐसे में जरूरत है सच्चे मार्गदर्शक की, और वो मार्गदर्शक शिक्षक ही हैं जो स्कूली शिक्षा के दौरान बच्चों के कोमल एवं साफ मन में सदगुण व सदाचार के बीज बोने का कार्य कर सकते हैं।  मगर बदलते परिवेश में शिक्षकों एवं विद्यार्थियों का स्वरूप भी काफी परिवर्तित हुआ है।


शिक्षक समाज के निर्माण में अपनी भूमिका नहीं समझते और शिष्य उनका सम्मान करना भूल गये हैं। जहाँ तक शिक्षक का सवाल है, अब यह किसी पेशे की तरह तब्दील हो चुका है। अधिकांश शिक्षक बच्चों को उनके पाठ्यक्रम से रूबरू कराना ही अपनी जिम्मेदारी समझते हैं, भले ही बच्चे व्यावहारिक ज्ञान से महरूम हों मगर उसका किताबी ज्ञान सुदृढ़ होना चाहिये। यह बात अभिभावक एवं शिक्षक दोनों पर ही लागू होती है। ऐसे में इन दोनों व्यक्तित्व के बीच बच्चा जीवन की महत्वपूर्ण शिक्षा से महरूम हो जाता है और बड़े होने पर विभिन्न बुराईयाँ उसे आगोश में ले लेती हैं।


परिणामस्वरूप इनका खामियाजा उस व्यक्ति के साथ पूरे समाज को भुगतना पड़ता है। समय परिवर्तन का बड़ा कारण शिक्षकों का पेशेवर होना भी है। पूर्व में शिक्षक आदर्शपूर्ण जीवन जीते हुए एवं अपने शिष्य के भविष्य निर्माण में अपनी जिन्दगी व्यतीत कर लेते थे। बदले में शिष्य भी अपने गुरू के लिये कुछ भी कर गुजरने का हौसला रखते थे।


हमारे शास्त्र में गुरू को सबसे ऊपर रखा गया है.....


गुरूर ब्रह्मा गुरूर विष्णु गुरूर देवो महेश्वराय,


गुरूसाक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।


इसी तरह कबीरदास जी ने भी गुरू की महत्ता का वर्णन करते हुए कहा है-


गुरू गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पाय,


बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।


सही शिक्षा हासिल कर कैसे कोई भ्रमित, सच्चे ज्ञान को हासिल कर जीवन के मूल मंत्र को आत्मसात करता है डाकू अंगुलीमाल की कहानी भी उन्हीं उदाहरणों में से एक है। आज के परिपेक्ष्य में भी ऐसे शिक्षक की ही तलाश है जो समाज में भटके लोगों के लिये सच्चे मार्गदर्शक बन सकें।


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