क्या जीवन में कला के साथ कौशल भी है जरूरी?


दो दिन पहले की एक घटना है, जब दिल्ली मेट्रो के सामने एक 26 वर्षीय लड़की ने छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। इससे पिछले महीने अगस्त में भी एक लड़के ने मेट्रो के आगे छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। दरअसल यह वाकया इक्का-दुक्का नहीं बल्कि अनगिनत मामले हैं। आत्महत्या करने वालों की पसंदीदा जगहों में दिल्ली मेट्रो है। मेट्रो प्रशासन के लाख उपायों के आजमाने के बाद भी यह दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। निगरानी के लिये सीसीटीवी हताश व्यक्ति के मन की बात को भांपने में सक्षम नहीं हो सकता, यह भी सच है।


आज इस घटना का जिक्र करने का मतलब है, क्योंकि 10 सितंबर को दुनियां हर साल वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे(विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस) मनाती है।  जिसका उद्येश्य हताश और निराश लोगों को जिन्दगी की ओर लाने की कवायद है।


ऐसा बिल्कुल नहीं है कि लोग अपने जीवन का अंत मेट्रो के सामने ही करते हैं, बल्कि अन्य कई तरीके आजमाते हैं, और सफल हो जाते है, क्योंकि उनके लिये मौत आसान होती है, और जिन्दगी मुश्किल।


वह इस बात से बिल्कुल अंजान होते हैं कि जिन्दगी चाहे जिसकी भी हो, मुश्किलें साथ होती हैं, चुनौतियों से सामना होता है, और वह लड़ते हैं, हारते नहीं। मगर इसी जज्बे की शून्यता कुछ लोगों के मन में लड़ने से पहले हारने का विचार डाल देती है, और ऐसे व्यक्ति आत्महत्या करने जैसा कठोर कदम उठाते हैं। कभी व्यापार में नुकसान, कभी गरीबी, कभी लाचारी, कभी प्रेम में असफलता तो कभी परीक्षा में प्रदर्शन की फिक्र में असमय जीवन का अंत हो जाता है।  


इस मशीनीकरण के दौर में छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सब स्मार्ट फोन, स्मार्ट वॉच तक पहुँच गये, लेकिन साथ रहते लोगों से दूर हो गये। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि उन्हीं स्मार्ट फोन के माध्यम से हर व्यक्ति 24 घंटे फ़ेसबुक, ह्वाट्सएप  इंस्टाग्राम, ट्विटर इत्यादि के माध्यम से पूरी दुनिया से जुड़े रहने की कोशिश में लगा रहता है। इस दोहरी जीवनशैली का दुष्प्रभाव बढ़ते हुए मानसिक रोगों और तनावों से आंका जा सकता है। 


दुर्भाग्य से मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है, जिसपर आज भी लोग बात करना नहीं चाहते। इसी सोच के कारण कितने ही ऐसे लोग हैं, जो अपनी कमजोरियों और परेशानियों का हल नहीं ढूँढ़ पाते और आगे चलकर उनकी परेशानियाँ घातक रूप भी ले लेती है।


कितने ही ऐसे लोग हैं, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी खत्म करने का भीषण कदम उठा लिया, केवल इसलिये कि संचार(बातचीत) के इस दौर में वो अंदर से अकेले थे। उनकी परेशानी समझने वाला और उसका हल ढूँढ़ने वाला कोई उनके पास नहीं था। उदासी और अकेलापन दुनियाभर में साइलेंट किलर कहलाया जाता है, क्योंकि जहाँ ये अंदर से इंसान को तोड़ देता है, वहीं सतही तौर पर इनका कोई निशान नहीं होता।


- - इसी कारणवश इस मानसिकता को बदलने की जरूरत दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। लोगों को फ़ेसबुक को छोड़कर फ़ेस को पढ़ने की जरूरत है, ताकि किसी के अंदर छिपे दुख, दर्द, क्लेश को सुलझाने में उनकी मदद की जा सके। छोटे-छोटे प्रयासों से बड़े-बड़े हादसे टल सकते हैं। एक सच्चा साथी ढ़ूंढ़ने की जरूरत है, जो हर कमजोर क्षण में हौसला देकर यह कहे कि मैं हूँ ना। वास्तव में सारी समस्या का हल इसी में है। एक उम्मीद जहाँ से व्यक्ति का जीवन पुनः शुरू हो जाता है।


लाईफ स्किल्स पर अपनी राय देते हुए साइकॉलॉजिस्ट अनिका अरोड़ा कहती है- "पहले ज़माने में जीना एक कला मानी जाती थी। लेकिन आज इतनी जटिलताओं के साथ जीने के लिये केवल कला नहीं, कौशल भी चाहिये। और ये कौशल है, सोच के खुलेपन में, अनुशासन में, एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारी के आभास में, रिश्तों में, विश्वास में। आने वाली पीढ़ी को सही मूल्यों की ओर वापस लाना और जीवन कौशल सिखाना एक मौलिक जिम्मेदारी है, जिससे हर माता-पिता, शिक्षक और दोस्त को निभाना चाहिये।" 


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