21 जुलाई 1920 को श्री मां सारदा ने ली अंतिम सांस

सारदामणि मुखोपाध्याय भारत के सुप्रसिद्ध संत स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक सहधर्मिणी थी। ये श्री मां के नाम से परिचित हैं। इनका जन्म 22 दिसंबर 1853 को बंगाल स्थित जयरामबाटी  गांव में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता रामचंद्र मुखोपाध्याय और माता श्याम सुंदरी देवी कठोर परिश्रमी, सत्यनिष्ठ एवं भगवद् परायण थे।


     5 वर्ष की उम्र में इनका विवाह रामकृष्ण देव से हुआ। जब रामकृष्ण के साथ विवाह हेतु कोई योग्य कन्या नहीं मिल रही थी तब रामकृष्ण ने जयरामबाटी में पता लगाने के लिए कहा था। रामकृष्ण ने सारदा को देखकर कहा था कि इस कन्या का जन्म मेरे लिए ही हुआ है। इनके भक्तों का मानना है कि मां सारदा और रामकृष्ण देव कई जन्मों से एक दूसरे के सहचारी थे।


     रामकृष्ण देव सारदा को जगत्माता के रूप में देखते थे। 1872 को काली पूजा की रात रामकृष्ण ने जगत्माता के रूप में सारदा की पूजा की। सारदा रामकृष्ण की प्रथम शिष्य थी।  रामकृष्ण ने इन्हें दिव्य मंत्र सिखाए थे। 1886 में रामकृष्ण के प्राणांत के बाद सारदा तीर्थ दर्शन करने चली गई।  वहां से लौटने के बाद ये कामारपुकुर में रहने आ गई। परंतु भक्तों के अत्यंत आग्रह पर ये कामारपुकुर से कोलकाता आ गई। इनका आध्यात्मिक ज्ञान उच्च कोटि का था।  कठिन परिश्रम एवं बार-बार मलेरिया के संक्रमण के कारण इनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। 21 जुलाई 1920 को श्री मां सारदा ने कोलकाता में अंतिम सांस ली। बेलूर मठ में इनके समाधि स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है।


उपर्युक्त जानकारी नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया से सम्मानित गैर सरकारी संस्था दर्शन मेला म्यूजियम डेवलपमेंट सोसायटी की प्रमुख उपलब्धि पाठक मंच के इंद्रधनुष कार्यक्रम में दी गई।


      


 


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