शिक्षा के मायने

    ज़िन्दगी जीने के लिये कितनी और कैसी शिक्षा की जरूरत होती है, यह बड़ा सवाल है। ऐसा इसलिये कि इन दिनों शिक्षा ने एक बड़े बाजार को जन्म दे दिया है। खासकर महानगरों में तो जैसे स्तरीय शिक्षा के लिये अपनी बोली लग रही है। अभिभावक इसी बोली पर स्कूल के स्तर का आंकलन कर रहे हैं। स्तरीय शिक्षा मतलब स्कूल की बिल्डिंग छोटी और साज सज्जा कम हो तो स्कूल बच्चे के विकास में अपनी भूमिका निभाने में अक्षम है। किसी अभिभावक की आर्थिक मजबूरी ही बच्चे के दाखिले के लिये उस स्कूल के दरवाज़े तक ले जाएगी अन्यथा नहीं। वहीं दूसरी ओर अगर स्कूल बच्चों को पांच सितारा सुविधा देने की हैसियत रखता हो, स्कूल में प्रवेश के साथ  ही रिसेप्शनिस्ट जब फर्राटेदार अंग्रेजी भाषा में आपका स्वागत करते  हुए यह समझाए कि वहाँ एडमिशन के लिये बच्चों की लम्बी कतार है, तब अभिभावकों को वाकई लगने लगता है, कि हाँ !  यही वह स्कूल है, जिसमें अपने बच्चे को पढ़ाने की चाहत उन्हें  थी। फिर फीस चाहे कितनी ही हो, स्कूल को अपनी मांग रखने  का हक बनता है। आख़िर यह रख-रखाव मुफ्त में तो नहीं मिलता। यहाँ मुफ्त का मतलब कम फीस से है। 


प्राईमरी शिक्षा से लेकर 12वीं तक बच्चों को ऐसी स्तरीय शिक्षा दिलाने में अभिभावक कितनी बार मन ही मन टूट-टूटकर बिखरते हैं, शायद बच्चों को भी अंदाज़ा नहीं होता। हर कीमत पर नामचीन स्कूल में पढ़ाने की चाहत में अपने बच्चों से उम्मीद भी कई गुणा होती है। हर अभिभावक यह सोचता है कि बच्चा टॉप करे, नंबर का प्रतिशत सौ नहीं तो इतना जरूर हो जिससे वो अपने आस-पास वालों के बीच रूतबा कायम रख सकें। हालांकि यहाँ इस महंगे सफर की शुरूआत भर होती है। बारहवीं के बाद आगे का सफर कैरियर के लिये होता है, जब एमबीए, इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे क्षेत्रों में छात्रों को दाखिला देने वाले संस्थान अपनी फीस तय करते हैं। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार तो अपने बच्चे का भविष्य इस जरिये से सोच तक नहीं सकता। उसके लिये सरकारी सुविधाएँ ही दुरूस्त हैं। उनकी लागत अधिक नहीं तो उम्मीदें भी कम हैं। शायद यह भी एक बड़ी वजह हो सकती है कि तनाव मुक्त ये छात्र अक्सर बड़ी-बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएँ पास कर जाते हैं, और अन्य के लिये उदाहरण बनते हैं।


वहीं मोटी फीस देकर शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्र जब काम के लिये बाहर निकलते हैं, तो इनकी बाजार से बड़ी अपेक्षाएँ होती हैं। बचपन से मिली ऐशो आराम की सुविधा के बाद चकाचौंध वाले कैरियर की ही चाहत होती है। ऐसे में अगर मन मुताबिक सफलता मिल गई तो सफल हो गये नहीं तो कई बार मिली असफलता इनमें अवसाद(डिप्रेशन) घर करने लगता है। फिर उन सारी महँगी पढ़ाई का कोई मतलब नहीं रह जाता।


यहाँ सवाल यह उठता है कि स्कूल की ऊँचे भवनों में बच्चों को आख़िर ऐसी कौन सी अलग शिक्षा दी जाती है, जो उसे अन्य बच्चों से अलग कर देती है। अंग्रेजी में बोलचाल की खासियत छोड़कर शायद ही ये स्कूल अन्य से अलग हों। वरना यहाँ पढ़ा हर एक बच्चा खास और हर क्षेत्र में सफलता की ऊँचाईयों को छूने वाला होता। जबकि सच्चाई तो ये है कि यहाँ भी बच्चे फ़ेल होते हैं, क्योकि प्रतिभा भवनों में नहीं दिमाग से झलकती है। उसे किसी चिराग की जरूरत नहीं होती वह खुद रौशन होती है। दूर-दराज़ के गांवों में कस्बों में और स्कूल के टूटे भवनों में से निकलकर यह पूरी दुनियाँ को अपना अहसास करा देती है।


फिर ऐसी कौन सी वजह है, जिसने शिक्षा का बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया। दरअसल शिक्षा का यह बाजार अभिभावकों को अपना सामान खरीदने के लिये बेहतरीन प्रस्तुतिकरण देता है, जिसकी चकाचौंध में गुम अभिभावक अपनी गाढ़ी कमाई उसे हंसी-खुशी सौप देते हैं। कई बार उनके लिये गर्व का भी विषय होता है। जबकि जरूरत तो इस बात को समझने है कि शिक्षा का मतलब ऊँचे भवनों में पढ़ने से नहीं बल्कि विषयों के ज्ञान के साथ व्यवहारिक ज्ञान से भी है। व्यवहारिक ज्ञान, जो ज़िन्दगी जीने के लिये जरूरी है, और जिसे बच्चे अपने घर-परिवार एवं रिश्तेदारों से सीखते हैं। एक कर्मठ, शिष्ट, मददगार, खुशमिज़ाज, और ज़िन्दगी की दौड़ में कभी भी पीछे नहीं रहने वाला इंसान वाकई शिक्षित होता है, और यही शिक्षा के मायने हैं।


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