सामाजिक न्याय व भारतीय राजनीति

प्राचीन भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। तब कौटिल्य ने अपनी राजनीतिक, कूटनीतिक कला एवं सूझ-बूझ से इन्हें एक सूत्र में बांधकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना में योगदान दिया। कौटिल्य राज्य के सामाजिक समझौते को मानते थे और राजतंत्र के पक्षधर थे। उनके अनुसार राज्य का उद्येश्य केवल शांति व्यवस्था तथा सुरक्षा स्थापित करना ही नहीं वरन व्यक्ति के सर्वोच्च विकास में योगदान देना है। उनका मानना है कि प्रजा की खुशी में ही राजा की खुशी है। एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय का अर्थ हर मनुष्य को स्वतंत्रता देने और उनके साथ समान व्यवहार करने से है।



इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिये। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिये कि उत्तम जीवन की अपनी जरूरतों को पूरी कर सकें। कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय का संघर्ष लोगों के अस्तित्व और अस्मिता से जुड़ा संघर्ष है। डॉ. भीमराव अंबेदकर और उत्पीड़ित जातियों और समुदायों के कई नेता समाज के हाशिये पर पड़ी जातियों को शिक्षित और संगठित होकर संघर्ष करते हुए अपने न्यायपूर्ण हक को हासिल करने की विरासत रच चुके हैं। इसी तरह 50 और 60 के दशक में राम मनोहर लोहिया ने इस बात पर जोर दिया कि पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को एकजुट होकर सामाजिक न्याय के लिये संघर्ष करना चाहिये। महात्मा गांधी के विचारों, आदर्शो तथा कार्यों ने संपूर्ण मानव समुदाय को प्रभावित किया। गांधी ने पहले दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के विरूद्ध अहिंसक संघर्ष किया, बाद में 1914 से 1947 तक भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का अहिंसा तथा सत्याग्रह के मार्ग का अवलंबन करके सफल नेतृत्व किया। स्वराज अर्थात स्वशासन गांधी के जीवन का महत्वपूर्ण सपना था। उनका स्वराज निर्धन का स्वराज है, जो दीन दुखियों के उद्धार के लिये होना था। इसके पूर्व बाल गंगाधर तिलक ने यह घोषणा की कि स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा। इसकी प्राप्ति के लिये गांधी ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया। वे सत्य को ईश्वर मानते थे। गांधी जी ने वयस्क मताधिकार पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था की मांग की जो चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित हो, जो पूरी तरह जन आकाक्षाओं के अनुरूप हो और जो लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करेवह साधन तथा साध्य दोनों की पवित्रता पर बल देते थे।


न्होंने सत्य, अहिंसा, आत्मसंयम व आत्मानुशासन के महत्व पर जोर दिया। वह हिंसा तथा शोषण पर आधारित वर्तमान राजनीतिक ढांचे को समाप्त करके, उसके स्थान पर लोगों की सहमति पर आधारित जन कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे। गांधी के सपनों के भारत में ग्राम पंचायतों को विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक शक्तियाँ मिलती हैं। ग्राम पंचायतों के ऊपर मंडलों की, उनके ऊपर जिलों की तथा जिलों के ऊपर प्रांतों की पंचायतें होंगी। सबसे ऊपर सारे देश के लिये संघीय पंचायत होगी। प्रत्येक गांव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सुरक्षा की दृष्टि से स्वावलंबी होगा। सैनिक शक्ति व पुलिस नहीं होगी। बड़े नगर, कानूनी अदालतें, कारागार तथा भारी उद्योग नहीं होंगे। सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा। प्रत्येक गांव स्वयंसेवी रूप से केन्द्र से संबद्ध होगा। उनके सपनों के भारत में जात-पात, धर्म- सम्प्रदाय, स्त्री-पुरूष, ऊँच-नीच आदि के भेदभाव मिटकर समाज के सभी लोगों के कल्याण कार्य को बढ़ावा देना शामिल है। उनका मानना था कि यह परस्पर सहयोग व सद्भावना का विकास करेगा। यह विचारधारा गांधी के सर्वोदय सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। यही गांधी का वास्तविक स्वराज होगा। बाद में विनोबा भावे ने इस सर्वोदय सिद्धांत का अनुसरण किया।


डॉ. भीमराव अंबेदकर आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतक, बुद्धिजीवी, मानवतावादी, दलितों के मसीहा तथा सामाजिक न्याय के संघर्षशील योद्धा थे। वह भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता के रूप में भी जाने जाते हैं। 1946 में भारतीय संविधान सभा के गठन के उपरांत प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में अंबेदकर ने आरक्षण नीति पर बल दिया तथा वह भारतीय संविधान में इसे शामिल कराने में सफल रहे। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि सामाजिक न्याय एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करें। 


 


उन्होंने हिन्दुओं में अस्पृश्य माने जाने वाले आवश्यक जातियों को संगठित करके उन्हें सामाजिक तथा प्रत्येक राजनीतिक न्याय हेतु संघर्ष करने के लिये प्रेरित प्रसंन्नता किया। उन्होने दलित समुदाय को तिरस्कार तथा तथा अधीनता के उस दलदल में से उबारा, जिसमें धर्माध व्यवस्था तथा धर्म के ठेकेदारों ने उन्हें फंसा रखा था। अंबेदकर  इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिंदु समाज में समानता संभव नहीं। इसी कारण अंततः उन्होंने हिंदु धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। अंबेदकर सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु मानव अधिकारों की व्यवस्था को आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार-प्रत्येक व्यक्ति के लिये स्वतंत्रता, प्रसंन्नता की खोज, विचार अभिव्यक्ति तथा धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की व्यवस्था की जानी चाहिये, दलित वर्गों को बेहतर अवसर प्रदान करके सामाजिक, आर्थिक असामनता दूर करनी चाहिये, प्रत्येक नागरिक को अभाव तथा भय से मुक्ति प्रदान करनी चाहिये। वह मानते थे कि वास्तविक स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक भी होनी चाहिये।


उन्होंने महिलाओं की दशा सुधारने तथा दलितों के उद्धार में अपना जीनव लगा दिया। उनकी अभूतपूर्व सेवा व योगदान के लिये उन्हें भारत सरकार द्वारा मरणोपरांत भारत रत्न के सर्वोच्च नागरिकता पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सामाजिक न्याय के क्षेत्र में दिये गये महात्मा गांधी तथा अंबेदकर के विचार तथा उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। दोनों ही दलितों के उद्धार के पक्षधर थे। हालांकि कुछ मुद्दों पर दोनों में मतभेद भी थे। गांधी पुनर्जन्म तथा कर्मफल में विश्वास रखते थे, किंतु अंबेदकर ने इस दर्शन को अस्वीकार कर दिया। बड़े ही खेद के साथ ये कहना लाजिमी है कि आजादी के बाद हमारे देश की राजनीति में धीरे-धीरे बहुत नीचे के स्तर तक गिरावट आयी है। वर्तमान राजनीति तो सबसे निचले स्तर तक गिर गई है, जहाँ न तो कहीं संविधान की मर्यादा का ख्याल है और न ही कहीं नैतिकता नजर आ रही है।


 


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